अब
कहाँ रह गयीं वे छतें ...
अब
कहाँ रह गयीं वे छतें जिनमे गर्मियों की शाम हर हाल
पानी
छिड़क हम पहले उसकी गर्मी हटाते और बिछाते लंबा तिरपाल
उस
तिरपाल पर बिछ जाते अनेकों गद्दे
कुछ
साफ़ सुथरे और कुछ गन्दे व भद्दे
पर
भरपूर नींद सभी को आती थी
किसी
को गर्मी कभी न सताती थी
अब
कहाँ रह गयीं वे छतें ...
अब
कहाँ रह गयीं वे छतें जिनमें सर्दियों की दोपहरिया
अक्सर
अम्मा के साथ इकट्ठा होतीं चाचियाँ, ताइयाँ, बुआ और भाभियाँ
बातों
के छल्लों के बीच तागी जाती रजाइयाँ
तगाइ
से ज्यादा होतीं जमाने भर की बुराइयाँ
बीच
बीच में कभी चाय, कभी लइयाचना, कभी गुड़ तो कभी गादा
ढलते
सूरज के साथ कल किसी और की रजाई की तगाइ का वादा
अब
कहाँ रह गयीं वे छतें ...
अब
कहाँ रह
गयीं वे छतें जिनके एक सिरे पर घर की बेटियाँ
खेलती
रहतीं थीं कड़क्को और दूसरे सिरे पर लड़के खेलते थे बत्तीसा या गोटियाँ
जब
भी कोई मदारी डमरू और ढोल बजाता बीच गाँव में
बारह
घरों की छतों को कूदने को स्प्रिंग लग जाते पाँव में
कदबद
भदभद करते पहुँच जाते हम
मनाही
के बाद भी खेल देख आते हम
अब
कहाँ रह
गयीं वे छतें ...
अब
कहाँ रह गयीं वे छतें जहाँ फागुन के दिनों में अक्सर
हमारी
निगाहें गड़ी रहतीं नहाने के बाद कपड़े फैलाने आईं पड़ोस की भाभियों पर
इसके
पहले कि वे सम्भलती, हम उड़ेल आते
पानी भरी बाल्टियाँ
अपनी
छत पे आ पलटते, हम पाते कृतिम
रोष दिखाती भाभियाँ
'जय' न हमारी आखों
में, न मन में कोई बुराई थी
इसलिए
न हमारी
कोई शिकायत हुई, न पिटाई
ही
अब
कहाँ गयीं वे छतें ...
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