Tuesday, March 13, 2018

मुकद्दर का सिकन्दर

# मुकद्दर का सिकन्दर #

बात तब की है जब किदवईनगर से टेम्पो (विक्रम) सीधे बड़ा चौराहा (क्राइस्टचर्च कालेज) तक चलते थे ।

कार्यालय के लिए मैं प्रायः किदवईनगर से बड़े चौराहे तक जाने वाली टेम्पो में बैठता था । दिसम्बर का माह था । उस दिन चौराहे पर पहुँचा तो एक बारह तेरह साल का लड़का लपक कर मेरे पास आया और बोला, 'बाबू, बड़ा चौराहा चलेंगे क्या?'

मेरी सहमति पर उसने एक टेम्पो की तरफ संकेत करते हुए कहा, 'बैठिए, एक सवारी ही कम है।'

आदतन मैं टेम्पो की (कुल दस सवारियों में से)  नौवीं या दसवीं सवारी बनने के बजाय किसी खाली टेम्पो में बैठ कर गाड़ी भरने की प्रतीक्षा करता था । इसलिए मैंने मना कर दिया और बोला कि मुझे लटक कर नहीं जाना है ।

वह लड़का मायूस हो गया फिर भी मुस्कुरा कर बोला, 'आप आइए तो सही । जगह मैं बनवाता हूँ । आप आराम से जाएंगे।'

देर हो रही थी इसलिए मैने सहमति दे दी तो वह झपटकर टेम्पो के अंदर झाँक कर एक तरफ बैठी तीन सवारियों से कहा,'जरा खिसक कर आगे पीछे होकर बैठिए सब लोग, एक सवारी और बैठेगी । फटाफट खिसको तो गाड़ी चले । '

तनिक ना-नुकुर के बाद मैं उसमें (बैठ तो नहीं पाया पर हाँ ... ) फिट अवश्य हो गया । गाड़ी आगे खिसकी तो वह लड़का भी लपक कर दरवाजे के डंडों को पकड़कर खड़ा हो गया । नये-पुल तक वह वहीं पाँवदान में बैठ भी गया और एक फिल्मी गीत गुनगुनाने लगा "रोते हुए आते हैं सब, हँसता हुआ जो जाएगा .. वो मुकद्दर का सिकन्दर जानेमन! कहलायेगा .." इसपर ड्राइवर की आवाज़ आयी,"अबे किशोरकुमार! ठीक से पकड़कर बैठ, गिर नही जाना।"

अब वह लड़का प्रायः ही मिलने लगा और मैं उसके साथ ही जाने लगा । (आदतन) बातों बातों में मुझे उसके बारे में काफी ज्ञान हो चुका था जैसे कि उसका नाम सिकन्दर है । उसके आठ भाईबहनों में वह चौथे नम्बर पर है । कुछ दिन मदरसे में तालीम भी ली है किंतु फिर मन नही लगा तो बाबा-कुटिया चौराहे पर स्थित अब्बू की साइकिल-रिक्शे सुधारने वाली दुकान में आने लगा और पिछले कुछ दिनों से एक अन्य बड़े भाई की तरह वह भी टेम्पो में कंडक्टरी करने लगा है । अब तक वह मुझे बाबू के बजाय अंकल कहने लगा था । ड्राइवर की डाँट सुनने अथवा (दूसरी टेम्पो से उतरकर) मेरे वहाँ पहुँचने तक वह भरसक कोशिश करता कि पीछे की तरफ की सीट (जो अन्य सीटों से तनिक चौड़ी होती है) पर दो सवारी ही बैठें और मेरे बैठने के बाद ही चौथी सवारी बिठाता । उसकी गाड़ी को देख कर मैं भी उसी में बैठकर प्रतीक्षा करता भले ही उसका नम्बर 3 गाड़ियों के बाद आये ।

उसे देखते ही मुझे वह फ़िल्म याद आ जाती थी जिससे मैंने फिल्में देखने की शुरुआत की थी - मुकद्दर का सिकन्दर । मैं अनायास ही उस फिल्मी सिकन्दर से इस सिकन्दर की तुलना करके वही झलक देखने लगता था ।

दो चार दिनों में मैंने गौर किया था कि वह पान मसाला खाने लगा था । एक दिन जब गाड़ी में मैं अकेला ही था तब मैंने उसे ऐसा न करने की सलाह दी । इस पर वह  मुस्कुराते हुए धीमी आवाज में आगे झुक कर जैसे रहस्य की बात बताने लगा,"अरे अंकल! अपने पैसे का मसाला नहीं खाता हूँ, जब ड्राइवर के लिए लाता हूँ उसी में से दो चार दाने ले लेता हूँ।"  फिर कंधे उचका दिए और खड़े खड़े बाहर ही पिच्च से थूक दिया और सवारी देख कर पुकार कर बुलाने लगा ... आओ आओ .. नयापुल.. टाटमिल.. मीरपुर.. मरे कम्पनी.. हीर पैलेस.. एल आई सी.. फूलबाग... रिजर्व बैंक.. बड़ा चौराहाआआ ...(जबकि ड्राइवर की सख्त हिदायत थी कि सवारियाँ सिर्फ बड़े चौराहे की ही भरनी हैं) । बस मजे के लिए वह यूँ ही हाँक लगाता रहता था ।

चलती गाड़ी में कभी वह पाँवदान पर खड़ा हो जाता तो कभी एक हाथ से हैंडल पकड़े पकड़े लटककर दूसरे हाथ से किसी साइकिल चालक तो कभी रिक्शेवाले के सिरपर चपत मारने का दिखावा करता । इसपर मैं जब भी उसे सावधानी रखने और ऐसा न करने की सलाह देता तो वह मुस्कुरा देता और बेफिक्री से बोलता 'अंकल, यह मेरा रोज़ का काम है .....'

जनवरी का दूसरा सप्ताह आरम्भ ही हुआ था। बीती रात का घना कोहरा अभी भी सड़कों पर पसरा हुआ था । हम सभी स्वेटर और जैकेट्स से जकड़े हुए थे लेकिन सिकन्दर एक फुल शर्ट पर हाफ स्वेटर पहने हुए था । एकदिन स्टैंड पर नववर्ष के उपलक्ष्य पर मैंने उसे एक स्वेटर खरीद कर देने का प्रस्ताव दिया था जिसे उसने यह कहकर मना कर दिया था कि 'अब्बू मारेंगे । वे कहते हैं कि या तो जो वे कमाते हैं उसमें गुजर बसर करो या फिर खुद कमाओ और खर्च करो।' इसपर मैंने उसे पैसे या घर से बेटे के कुछ पुराने जैकेट्स स्वेटर देने का प्रस्ताव किया जिस पर उसकी प्रतिक्रिया थी,"अरे अंकल! आप परेशान न होइए। हमें सर्दी लगती ही नहीं है। जब जरूरत होगी, आपसे कह दूँगा। रोज़ ही तो मिलते हो।" और हँसता हुआ दूसरी सवारियों को बुलाने लगा । मुझे लगा कि यदि मैंने इससे कुछ और कहा तो निश्चित ही इसके स्वाभिमान  को चोट पहुँचेगी और मैं चुप रहा ।

सवारी भर कर टेम्पो आगे बढ़ी और आदत के अनुसार पाँवदान पर बैठा सिकन्दर चौराहों पर सवारियाँ देख कर चिल्ला पड़ता ... आओ आओ .. नयापुल.. टाटमिल.. मीरपुर.. मरे कम्पनी.. हीर पैलेस.. एल आई सी.. फूलबाग... रिजर्व बैंक.. बड़ा चौराहाआआ ... । बीच बीच मे ड्राइवर की गुर्राहट सुनाई पड़ती "अबे ससुरे! जब गाड़ी फुल है तब क्यों चिल्ला रहा है.."

टेम्पो अब तक कटहरी बाग (तब टण्डन सेतु नहीं बना था) क्रॉसिंग से पार होकर पण्डित होटल की तरफ चल पड़ी थी।  क्रॉसिंग से मरे कम्पनी पुल तक कोहरा घना सा हो गया था । पण्डित के सामने एक सवारी को उतरना था । ड्राइवर ने अंदर ही अंदर चलती गाड़ी में पैसे लिए और उतरनेवाली सवारी से कहा कि गाड़ी धीमी कर रहा है और वह उतर जाए। ऐसा कह कर वह बीच सड़क पर ही टेम्पो को रोकने लगा। ट्रैफिक कम और धीमा था किन्तु अनुशासनविहीन था।

धीमा होते ही सिकन्दर कूद गया और टेम्पो से तनिक परे हटकर सवारी के उतरने का इन्तज़ार करने लगा । इसीबीच दायीं तरफ से तेजी से निकली एक सिटी बस सड़क पर खड़े सिकन्दर को रौंदती हुई आगे बढ़ गयी ।

एक चीख आयी, एक शोर उभरा और सड़क एक मासूम के रक्त से लाल हो गयी । पल भर में वह कोमल शरीर चीथड़ों में विभक्त हो निर्जीव पड़ा था । हम सभी हतप्रभ ! भौंचक्क !! निःशब्द !!!

यह सिकन्दर वास्तव में मुकद्दर का सिकन्दर न बन सका ....

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