Friday, March 9, 2018

08 मार्च 2018
आज महिला दिवस है । देश की सशक्त नारियों की चर्चा हो रही है और उन्हें सम्मानित किया जा रहा है । ऐसे समय मे मुझे हमारे गाँव की एक ऐसी ही महिला की याद आ रही है जिनका नाम बदल कर मैं यह आलेख लिख रहा हूँ ।

अभी कुछ दिन पहले ही गाँव में होली का आनंद उठाते और सभी से मिलते हुए अनायास ही जब मैं सड़क किनारे एक छोटे से घर के सामने पहुँचा तो मस्तिष्क में अचानक एक शब्द कौंधा "भोस* के" । हाँ यह गाली ही थी जिसने मुझे वहाँ पल भर को ठिठका दिया था । आज वहाँ ताला बंद था । बन्द भी क्यों न हो ! अब वहाँ कोई नहीं रहता । चन्द्रप्रभा बुआ (जिन्हें हम सभी चंद्रा बुआ कहते थे) अभी कुछ दिन पहले ही हम सभी को छोड़ परमपिता की शरण मे चली गयी थीं। वहीं पड़े एक छोटे से तखत में बैठ गया और स्मृतियों में गोते लगाने लगा।

यद्यपि वे हमारी पारिवारिक रिश्तों में बुआ नहीं थी किन्तु गाँवदारी में बहुत नज़दीकी थीं । वे सभी की बुआ थीं और सभी की नजदीकी थीं । अपने जीवनकाल में उनका सभी से कभी न कभी वाद-विवाद अवश्य हुआ था ।

 बचपन में हमने उन्हें अपने घर के सामने बने कुएँ में पानी भरते, बुधवार व शनिवार को बाजार जाते और जानवरों की सानी-पानी का प्रबंध करते हुए देखा था । बहुत बड़े घर और बीघों खेत - बागों की इकलौती स्वामिनी बेहद दुबली पतली चंद्रा बुआ विवाह के बाद यहीं अपने पीहर में ही रह गयीं । हमने बचपन में ही कई बार उन्हें अपनी बूढ़ी और झुकी पीठवाली माँ के साथ आतेजाते हुए भी देखा था ।

इकलौता होने के कारण यद्यपि उनकी सम्पत्ति का कोई बटवारा करने वाला नहीं था फिरभी झगड़ा झंझट से उनका गहरा नाता रहा है । इन्ही झगड़ों में कई बार उनका सामना नेता, दरोगा, तहसील, कोर्ट आदि से भी हुआ ।  हर जगह वे तनकर खड़ी रहीं ।

यह मायके में रहने का दम्भ रहा हो या फिर जमाने की ठोकरों से लड़ने की जिजीविषा ... जिसकी वजह से वे बिना लाग-लपेट और बिना झिझक धाराप्रवाह गालियां देने लगी थीं । मैने अपने जीवन में पहली बार किसी महिला को भीड़ में गालियाँ देते हुए देखा था और मेरे किशोर मन में एक डर सा भर गया था । चौकी- थाने में उनकी इस भाषा के कारण सिपाही दरोगा उनसे बात करने से कतराते थे या फिर वे कहते थे,"बुआ, आप जो भी बात हो उसे शांत होकर बताएं । गालियां न दें।" मैंने सुना है कि ऐसे कई मौकों पर वे उनसे भी कह चुकी थी, "अबे चुप्प भोस* के!"

चंद्रा बुआ साहस का जीता जागता स्वरूप थीं । रात- बिरात कहीं भी जा सकती थीं । बागों में देर रात और धुंधले भोर में अकेले ही आमों की  रखवाली करती थीं । वे एक बेख़ौफ़ और बेबाक़ महिला थीं । यह उनका दबदबा ही था कि विरोधी सामने से वार करने से डरते थे।

बहुत से सामाजिक झंझावातों और खूनी झगडों को सहन करते हुए उस अकेली जान ने पुश्तैनी खेत, खलिहान, घर, और दुकान का एक इंच भी इधर से उधर नहीं जाने दिया । हर सम्भव लड़ीं और जीती भीं । हत्या? के एक मामले में बड़े बेटे को मिली सजा की अवधि को चंद्रा बुआ ने बड़े धैर्य से काटा और बेटे को जेल से बाहर लायी ।  बदले घटनाक्रम में बीच गाँव के बड़े से घर को बेटे बहू के लिए छोड़ कर वे अब सड़क के किनारे अपने खेत मे एक छोटी सी कोठरी बनाकर रहने लगी थी।

अपने लंबे जीवन में उन्हें कुछ असहनीय दर्द मिले जिनमें उनके छोटे बेटे की आकस्मिक मृत्यु, पति की मृत्यु, बहू की आकस्मिक मृत्यु हैं ... और भी बहुत कुछ .....उनकी अपनी बीमारी की पीड़ा है वह अलग ।

मेरे घर में आते जाते या बाहर कहीं भेंट होने पर उन्होंने मुझे कभी भी मेरे नाम या बबुआ- बच्चा कहकर नहीं बुलाया । बुलाया तो "अबे भोस* के" के सम्बोधन से । सच कहूँ तो मुझे यह सम्बोधन कभी गाली जैसा नहीं लगा । मुझे लगता था कि मेरा एक नाम यह भी है जिसपर सिर्फ और सिर्फ चंद्रा बुआ का अधिकार था ।

बुआ जी, यद्यपि आप अब इस नश्वर संसार में नहीं हैं किंतु आप मेरे लिए आज भी जीवटता का एक सशक्त पाठ हैं । आप जैसी कोई दूसरी नहीं ।

आपको मेरी श्रद्धांजलि 💐💐💐

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