Friday, March 30, 2018

शब्द

शब्द शब्द में अंतर होता, शब्द के हाथ न पाँव
एक शब्द औषधि बन जाये, दूजा  करता घाव
शब्द बोलिये सोचकर, हर शब्द खीँचता ध्यान
एक शब्द से मन दुःख जाए, दूजा  करता मान
शब्द जो मुँह से निकले, वे फिर वापस न आएँ
प्रेम पगे शब्दों को बोलें,  ये सबके हृदय समाएँ

Wednesday, March 28, 2018

हमारे हो

कहते हो हमारे हो, दिखते  भी हमारे हो
मौके पे पता चलता, कि कितने हमारे हो
मंज़िल को चले थे हम, एक ही कश्ती से
'जय' बीच मे डूबा पर, तुम तो किनारे हो

बदलते रंग

लोगों की अनेकों क्यों, होती हैं जुबां अब तो
साया भी न नकली हो, होता है गुमां अब तो
विश्वास दिलाते थे 'जय', पलकों के इशारे से
चिल्ला के भी बोलो तो, मानेगें कहाँ अब तो

Sunday, March 25, 2018

संस्कार

कम शब्दों में "संस्कार" शब्द को परिभाषित करना बहुत ही कठिन कार्य है। "संस्कार" मूलतः संस्कृत भाषा का शब्द है। किसी अन्य भाषा में "संस्कार" शब्द के समकक्ष दूसरा शब्द है ही नहीं । इस शब्द का अनुवाद करना कठिन है ।

विश्व की बहुत सी प्रमुख भाषाओं के शब्दकोषों और शब्दावलियों में  "संस्कार" शब्द को ऐसे ही स्वीकार कर लिया गया है।

"संस्कार" शब्द का शाब्दिक तात्पर्य है शुद्ध करना, परिशोधित करना, पूर्ति करना, चमत्कृत करना अथवा अंतरात्मा का श्रृंगार करना । सच कहूँ तो "संस्कार" शब्द की परिभाषा समुद्र की गहराई जितनी चौड़ी और आकाश की ऊँचाई जितनी लम्बी है। फिरभी "संस्कार" शब्द को निम्न ढंग से परिभाषित कर सकते हैं :

* "संस्कार" - साधारण मानव के अंदर आत्मसात नकारात्मक धारणाओं को खोदकर बाहर निकालने के बाद उसके व्यक्तित्व को आदर्श और सुघड़ बनाने की प्रक्रिया है। यही "संस्कार" साथ ही मनुष्य के मानवीय मूल्यों को और अधिक सक्रिय, स्फूर्त और चैतन्य बनाते हुए उसे न केवल अपने बल्कि समाज के प्रति उत्तरदायी बना देते हैं ।

* "संस्कार" - एक छोटे बच्चे के अवचेतन मन में मानवीय मूल्यों के छोटे से बीज को रोपने के जैसा है जिसके कारण ये मानवीय मूल्य रूपी बीज विशाल वृक्ष का रूप धारण करके न केवल उसकी आदत और चरित्र बन जाते हैं बल्कि सम्पूर्ण जीवन उसे अनुशासित भी करते रहते हैं । इन्ही संस्कारों के कारण एक मनुष्य अपने अन्तर्मन में बसे एक आदर्श के अनुसार आचरण और व्यवहार करता है।

*"संस्कार" - मनुष्य की भावनाओं, विचारों, कार्यों और क्रियाओं को शुध्द करते हुए न केवल उसके जीवन को जीवंत बना देते हैं बल्कि उसके अन्तर्मन को शुद्ध करके उसके जीवन को एक अर्थ दे जाते हैं ।

*"संस्कार"- मनुष्य के मस्तिष्क में सच्चरित्रों और सद्विचारों को जोड़ देते हैं जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व अति विलक्षण बन जाता है।

*"संस्कार" - सामाजिक मूल्यों को विकसित करते हैं और एक संस्कृति को तैयार करते हैं। सच यही है कि संस्कृति, आचरण, व्यवहार और संस्कार;  ये सभी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और अविभाज्य हैं ।

Wednesday, March 21, 2018

वक्त के डण्डे


काँटों सी जुबां, तूफां सी सदा, चेहरे पे कई  चेहरे भी हैं
जो ज़ख्म यहाँ हमने खाये, 'जय' वे तो बड़े  गहरे भी हैं
विषवचन साज़िशें दण्ड सभी मैं सहज ही सह लूँगा पर
साहिब! ना भूलें वक्त के डण्डे, ये गूँगे हैं, बहरे भी हैं।।

Monday, March 19, 2018

मृग-मरीचिका

धन्य ये व्यवस्थाएं, धन्य  जग  की  रीति का
हम समझ रहे हैं जिन्हें, फूलों भरी  वीथिका
काँटों भरी राह है, चलना सम्भल  सम्भल के
पानी सी दीखती 'जय', ये हैं मृग - मरीचिका

Saturday, March 17, 2018

पूनम की रात

सिंधु ज्वार  उठ चला गगन तक, देखो किसे  बुलाने को
बाँह  पसारे निकट आ रहा, सागर  में  शशि समाने  को
तारों की गुपचुप बातें सुन, 'जय' लहरें शरम से  मुस्काईं
पवन  बह चली मदिर-मदिर, पूनम  की रात  सजाने को

Wednesday, March 14, 2018

हृदय के अनोखे रूप

ज्वालाओं के मध्य बना यह कैसा उपवन
भ्रमित और आश्चर्यचकित है मेरा मन !

कभी मृगों के लिए स्वयं को चारागाह बना लेता
लामाओं के लिए स्वयं को बौद्धविहार बना लेता
किसी मूर्ति के लिए कभी यह पावन मंदिर बन जाता
हज़ करने वालों की खातिर यह का'बा भी बन जाता
कभी कभी तो बन जाता पावन ग्रंथों के दोहे
हृदय बदलता रहता मेरा कैसे रूप अनोखे !!

मानवता है मेरा धर्म अहो! अब इसको ही अपनाओ सभी
अजर-अमर-अविनाशी है यह, मेरा तो 'जय' विश्वास यही

मूल कविता निम्नवत है :

Wonder,
A garden among the flames!

My heart can take on any form:
A meadow for gazelles,
A cloister for monks,
For the idols, sacred ground,
Ka'ba for the circling pilgrim,
The tables of the Torah,
The scrolls of the Quran.

My creed is Love;
Wherever its caravan turns along the way,
That is my belief,
My faith.

-Ibn Arabi

Tuesday, March 13, 2018

नज़र

'जय' अपने ग़म में खुश था पर,
किसी ने यूँ नज़र डाली

जली पत्तों से, कलियों से,
फूलों से सजी डाली ।।

मत भेद

अपने मत को मानिए, जानिए  उसके  भेद
औरों  पर  ना थोपिए, मत  करिए  मतभेद
सूरज पर जो थूकते, जो धर्म को गाली देत
पल पल बदले रूप वे,'जय' सरके ज्यों रेत

संतुलन और अनुशासन

शिक्षा का महत्व यही है कि हमें पता चलता है कि जीवन में संतुलन और अनुशासन  का अहम स्थान है । इनके बिना जीवन न केवल बिखर जाता है बल्कि दुरूह भी हो जाता है । क्लास बंक न करने और बैक बेंचर न होने के कारण मुझे यह सीख तो जरूर मिली है ।

मेरे शिक्षकों को बहुत बहुत आभार और धन्यवाद ।

पीला पत्ता



शाख से बोला पीला - पत्ता, मैं  छोड़ रहा हूँ घर तेरा
अब बाग नहीं, अब पेड़ नहीं, है  पूरा यह अंबर मेरा
शाखा बोली,'तुम स्वस्थ रहो, किन्तु  न मर्यादा भूलो
पहचान तुम्हारी हमसे है, पिता है 'जय' तरुवर  तेरा'

(पीपल का पत्ता पीपल का ही कहा जायेगा ... चाहे वह हरा हो या सूखा)

सब्जी वाले की सीख

आज दोपहर घर के सामने खड़े छोटे से नीम के पेड़ के नीचे खड़ा होकर मैं मोबाइल पर बात कर रहा था । पेड़ की दूसरी तरफ एक गाय बछड़े का जोड़ा बैठा सुस्ता रहा था और जुगाली भी कर रहा था । एक सब्जी वाला पुकार लगाता हुआ आया । उसकी आवाज़ पर गाय के कान खड़े हुए और उसने सब्जी विक्रेता की तरफ देखा। तभी पड़ोस से एक महिला आयी और सब्जियाँ खरीदने लगी । अंत में मुफ्त में धनियांमिर्ची न देने पर उसने सब्जियां वापस कर दी ।
महिला के जाने के बाद सब्जी विक्रेता ने पालक के दो बंडल खोले और गाय बछड़े के सामने डाल दिया । मुझे हैरत हुई और जिज्ञासावश उसके ठेले के पास गया । खीरे खरीदे और पैसे देते हुए उससे पूछा कि उसने 5 रुपये की धनियां मिर्ची के पीछे लगभग 50 रुपये के मूल्य की सब्जियों की बिक्री की हानि क्यों की?
उसने मुस्कुराते हुए जवाब दिया - भइया जी, यह इनका रोज़ का काम है । 1-2 रुपये के प्रॉफिट पर सब्जी बेच रहा हूँ । इस पर भी फ्री .. न न न ।
मैंने कहा - तो गइया के सामने 2 बंडल पालक क्यों बिखेर दिया ?
उसने कहा - फ्री की धनियां मिर्ची के बाद भी यह भरोसा नहीं है कि यह कल मेरी प्रतीक्षा करेंगी किन्तु यह गाय बछड़ा मेरा जरूर इंतज़ार करते हैं और भइयाजी, मैं इनको कभी मायूस भी नहीं करता हूँ। मेरे ठेले में कुछ न कुछ रहता ही है इनके लिए ।  मैं इन्हें रोज खिलाता हूँ । अक्सर ये आगे बरगद के पेड़ के नीचे बैठी हुई मिलती हैं।  मुफ्त में उन्हें ही खिलाना चाहिए जो हमारी कद्र करे और जिन्हें हमसे ही अभिलाषा हो।

यह कह कर पुकार लगाते हुए उसने ठेला आगे बढ़ा दिया । मैं उसकी बात से सहमत हूँ कि मुफ्त में उन्हें ही खिलाना चाहिए जो हमारी कद्र करे और जिन्हें हमसे ही अभिलाषा हो।

मुकद्दर का सिकन्दर

# मुकद्दर का सिकन्दर #

बात तब की है जब किदवईनगर से टेम्पो (विक्रम) सीधे बड़ा चौराहा (क्राइस्टचर्च कालेज) तक चलते थे ।

कार्यालय के लिए मैं प्रायः किदवईनगर से बड़े चौराहे तक जाने वाली टेम्पो में बैठता था । दिसम्बर का माह था । उस दिन चौराहे पर पहुँचा तो एक बारह तेरह साल का लड़का लपक कर मेरे पास आया और बोला, 'बाबू, बड़ा चौराहा चलेंगे क्या?'

मेरी सहमति पर उसने एक टेम्पो की तरफ संकेत करते हुए कहा, 'बैठिए, एक सवारी ही कम है।'

आदतन मैं टेम्पो की (कुल दस सवारियों में से)  नौवीं या दसवीं सवारी बनने के बजाय किसी खाली टेम्पो में बैठ कर गाड़ी भरने की प्रतीक्षा करता था । इसलिए मैंने मना कर दिया और बोला कि मुझे लटक कर नहीं जाना है ।

वह लड़का मायूस हो गया फिर भी मुस्कुरा कर बोला, 'आप आइए तो सही । जगह मैं बनवाता हूँ । आप आराम से जाएंगे।'

देर हो रही थी इसलिए मैने सहमति दे दी तो वह झपटकर टेम्पो के अंदर झाँक कर एक तरफ बैठी तीन सवारियों से कहा,'जरा खिसक कर आगे पीछे होकर बैठिए सब लोग, एक सवारी और बैठेगी । फटाफट खिसको तो गाड़ी चले । '

तनिक ना-नुकुर के बाद मैं उसमें (बैठ तो नहीं पाया पर हाँ ... ) फिट अवश्य हो गया । गाड़ी आगे खिसकी तो वह लड़का भी लपक कर दरवाजे के डंडों को पकड़कर खड़ा हो गया । नये-पुल तक वह वहीं पाँवदान में बैठ भी गया और एक फिल्मी गीत गुनगुनाने लगा "रोते हुए आते हैं सब, हँसता हुआ जो जाएगा .. वो मुकद्दर का सिकन्दर जानेमन! कहलायेगा .." इसपर ड्राइवर की आवाज़ आयी,"अबे किशोरकुमार! ठीक से पकड़कर बैठ, गिर नही जाना।"

अब वह लड़का प्रायः ही मिलने लगा और मैं उसके साथ ही जाने लगा । (आदतन) बातों बातों में मुझे उसके बारे में काफी ज्ञान हो चुका था जैसे कि उसका नाम सिकन्दर है । उसके आठ भाईबहनों में वह चौथे नम्बर पर है । कुछ दिन मदरसे में तालीम भी ली है किंतु फिर मन नही लगा तो बाबा-कुटिया चौराहे पर स्थित अब्बू की साइकिल-रिक्शे सुधारने वाली दुकान में आने लगा और पिछले कुछ दिनों से एक अन्य बड़े भाई की तरह वह भी टेम्पो में कंडक्टरी करने लगा है । अब तक वह मुझे बाबू के बजाय अंकल कहने लगा था । ड्राइवर की डाँट सुनने अथवा (दूसरी टेम्पो से उतरकर) मेरे वहाँ पहुँचने तक वह भरसक कोशिश करता कि पीछे की तरफ की सीट (जो अन्य सीटों से तनिक चौड़ी होती है) पर दो सवारी ही बैठें और मेरे बैठने के बाद ही चौथी सवारी बिठाता । उसकी गाड़ी को देख कर मैं भी उसी में बैठकर प्रतीक्षा करता भले ही उसका नम्बर 3 गाड़ियों के बाद आये ।

उसे देखते ही मुझे वह फ़िल्म याद आ जाती थी जिससे मैंने फिल्में देखने की शुरुआत की थी - मुकद्दर का सिकन्दर । मैं अनायास ही उस फिल्मी सिकन्दर से इस सिकन्दर की तुलना करके वही झलक देखने लगता था ।

दो चार दिनों में मैंने गौर किया था कि वह पान मसाला खाने लगा था । एक दिन जब गाड़ी में मैं अकेला ही था तब मैंने उसे ऐसा न करने की सलाह दी । इस पर वह  मुस्कुराते हुए धीमी आवाज में आगे झुक कर जैसे रहस्य की बात बताने लगा,"अरे अंकल! अपने पैसे का मसाला नहीं खाता हूँ, जब ड्राइवर के लिए लाता हूँ उसी में से दो चार दाने ले लेता हूँ।"  फिर कंधे उचका दिए और खड़े खड़े बाहर ही पिच्च से थूक दिया और सवारी देख कर पुकार कर बुलाने लगा ... आओ आओ .. नयापुल.. टाटमिल.. मीरपुर.. मरे कम्पनी.. हीर पैलेस.. एल आई सी.. फूलबाग... रिजर्व बैंक.. बड़ा चौराहाआआ ...(जबकि ड्राइवर की सख्त हिदायत थी कि सवारियाँ सिर्फ बड़े चौराहे की ही भरनी हैं) । बस मजे के लिए वह यूँ ही हाँक लगाता रहता था ।

चलती गाड़ी में कभी वह पाँवदान पर खड़ा हो जाता तो कभी एक हाथ से हैंडल पकड़े पकड़े लटककर दूसरे हाथ से किसी साइकिल चालक तो कभी रिक्शेवाले के सिरपर चपत मारने का दिखावा करता । इसपर मैं जब भी उसे सावधानी रखने और ऐसा न करने की सलाह देता तो वह मुस्कुरा देता और बेफिक्री से बोलता 'अंकल, यह मेरा रोज़ का काम है .....'

जनवरी का दूसरा सप्ताह आरम्भ ही हुआ था। बीती रात का घना कोहरा अभी भी सड़कों पर पसरा हुआ था । हम सभी स्वेटर और जैकेट्स से जकड़े हुए थे लेकिन सिकन्दर एक फुल शर्ट पर हाफ स्वेटर पहने हुए था । एकदिन स्टैंड पर नववर्ष के उपलक्ष्य पर मैंने उसे एक स्वेटर खरीद कर देने का प्रस्ताव दिया था जिसे उसने यह कहकर मना कर दिया था कि 'अब्बू मारेंगे । वे कहते हैं कि या तो जो वे कमाते हैं उसमें गुजर बसर करो या फिर खुद कमाओ और खर्च करो।' इसपर मैंने उसे पैसे या घर से बेटे के कुछ पुराने जैकेट्स स्वेटर देने का प्रस्ताव किया जिस पर उसकी प्रतिक्रिया थी,"अरे अंकल! आप परेशान न होइए। हमें सर्दी लगती ही नहीं है। जब जरूरत होगी, आपसे कह दूँगा। रोज़ ही तो मिलते हो।" और हँसता हुआ दूसरी सवारियों को बुलाने लगा । मुझे लगा कि यदि मैंने इससे कुछ और कहा तो निश्चित ही इसके स्वाभिमान  को चोट पहुँचेगी और मैं चुप रहा ।

सवारी भर कर टेम्पो आगे बढ़ी और आदत के अनुसार पाँवदान पर बैठा सिकन्दर चौराहों पर सवारियाँ देख कर चिल्ला पड़ता ... आओ आओ .. नयापुल.. टाटमिल.. मीरपुर.. मरे कम्पनी.. हीर पैलेस.. एल आई सी.. फूलबाग... रिजर्व बैंक.. बड़ा चौराहाआआ ... । बीच बीच मे ड्राइवर की गुर्राहट सुनाई पड़ती "अबे ससुरे! जब गाड़ी फुल है तब क्यों चिल्ला रहा है.."

टेम्पो अब तक कटहरी बाग (तब टण्डन सेतु नहीं बना था) क्रॉसिंग से पार होकर पण्डित होटल की तरफ चल पड़ी थी।  क्रॉसिंग से मरे कम्पनी पुल तक कोहरा घना सा हो गया था । पण्डित के सामने एक सवारी को उतरना था । ड्राइवर ने अंदर ही अंदर चलती गाड़ी में पैसे लिए और उतरनेवाली सवारी से कहा कि गाड़ी धीमी कर रहा है और वह उतर जाए। ऐसा कह कर वह बीच सड़क पर ही टेम्पो को रोकने लगा। ट्रैफिक कम और धीमा था किन्तु अनुशासनविहीन था।

धीमा होते ही सिकन्दर कूद गया और टेम्पो से तनिक परे हटकर सवारी के उतरने का इन्तज़ार करने लगा । इसीबीच दायीं तरफ से तेजी से निकली एक सिटी बस सड़क पर खड़े सिकन्दर को रौंदती हुई आगे बढ़ गयी ।

एक चीख आयी, एक शोर उभरा और सड़क एक मासूम के रक्त से लाल हो गयी । पल भर में वह कोमल शरीर चीथड़ों में विभक्त हो निर्जीव पड़ा था । हम सभी हतप्रभ ! भौंचक्क !! निःशब्द !!!

यह सिकन्दर वास्तव में मुकद्दर का सिकन्दर न बन सका ....

Saturday, March 10, 2018

आवाज़ से पहचान

आर्यनगर में काउंसलर के ऑफिस में उसदिन मैं वाणिज्यकर (तब वैट लागू ही हुआ था) के केस की तैयारी कर रहा था । तैयारी अंतिम चरण पर थी कि तभी काउंसलर के पास एक फोन आ गया । वार्तालाप से लगा कि व्यक्तिगत विषय है इसलिए मैंने केबिन से बाहर आकर दरवाजा बंद कर दिया ।

बाहर अन्य क्लाइंट्स बैठे हुए थे । वहीं पर खाली कुर्सी पर मैं भी बैठ गया तो स्टाफ ने पूछा,  "क्या आपके केस की तैयारी हो गयी है ?"
- हाँ, लगभग हो ही गयी है ।
- भइया, करा लीजिये । कल कमिश्नर के पास पेशी है ।
- जी, त्रिवेदी जी फोन पर बात कर लें। बस अंतिम बिंदु पर चर्चा और पेपर्स तैयार करने रह गए हैं।
- तब ठीक है । हो ही गया समझो ।
इतना कहने के बाद स्टाफ ने सामने बैठे क्लाइंट्स से कहा,"इनके(मेरे) केस के बाद साहब लंच करेंगे इसलिए आप लोग एक डेढ़ घण्टे बाद आ जाएँ । कुछ उठ गए और कुछ बैठे रहे। उनमे से एक क्लाइंट ने कहा - अब कहाँ हम जाएंगे। मैं यहीं प्रतीक्षा कर लूँगा ।
- जैसा आप उचित समझें ।

तभी वह क्लाइंट घूमा और मुझे सम्बोधित करते हुए कहा - आपकी आवाज़ मेरे एक मित्र से मिलती है।

मैं मुस्कुराया और बोला - सच कहूँ तो आज पहली बार किसी ने मेरी आवाज  को किसी से मिलती जुलती कहा है वरना अभीतक तक 15-17 लोगों को मेरा चेहरा ही उनके किसी अपने या किसी चिरपरिचित के जैसा लगा है ।

- नहीं नहीं आप इसे मज़ाक न समझें । मैं सच कह रहा हूँ ।

- अच्छा जी । कहाँ के रहने हैं आपके मित्र जिनसे मेरी आवाज मिलती है ?

जिज्ञासावश मैने पूछा तो उन्होंने कहा- यहीं कानपुर के हैं ।

यह सुनकर मेरी जिज्ञासा और बढ़ी और पूछा - कानपुर! कानपुर में कहाँ ?

- के ब्लॉक किदवईनगर ।

मैंने आश्चर्य से उन्हें देखा और धड़कते हृदय के साथ उनसे पूछा - आपके मित्र का नाम क्या है?

अबतक वहाँ उपस्थित अन्य सभी क्लाइंट और स्टाफ भी हमारे वार्तालाप को बहुत गौर से सुन रहे थे ।

- जय भारद्वाज ।

अब मैं सन्न था और एकटक उनके चेहरे को देखकर उन्हें पहचानने का प्रयास कर रहा था किन्तु मस्तिष्क संज्ञाशून्य हो चुका था ।

मैने देखा कि स्टाफ हौले हौले मुस्कुरा रहा था । स्वयं को संयत करते हुए मैंने बहुत धीमी आवाज़ में पूछा - आपका  नाम क्या है?

 - $@ दीक्षित ।

उफ्फ ये क्या हो रहा था । न मुझे यह नाम याद आ रहा था और न ही यह सूरत । कोई विशिष्ट और घनिष्ठ व्यक्ति ही होना चाहिए क्योंकि यहाँ पर बहुत कम शब्दों के वार्तालाप के बाद ही इन्होंने आवाज़ पहचान ली थी ।

तभी स्टाफ की आवाज़ ने मुझे इस भँवर से निकाला जो दीक्षित जी से कह रहा था - यही तो हैं भारद्वाज जी , आपके वही मित्र ।

- क्या सच में?

उन्होंने मुझे गौर से देखा और उठकर हाथ मिलाया । उनकी हथेली को अपने दोनों हाथों में थामे हुए मैंने उनकी आँखों में आँखे डालते हुए कहा - क्षमा करना किन्तु मैं अभी भी नहीं पहचान सका ।

मुस्कुराते हुए वे बोले - मैं लक्ष्मी का हसबैंड ...

- ओह हो हो ..
मैंने तुरन्त हाथ छुड़ाया और उनके चरण स्पर्श करने के झुक गया किन्तु उन्होंने मुझे ऐसा करने से रोकते हुए कहा - नहीं नहीं, भाई साहब, आप बड़े हैं । इतना सम्मान ही काफी है ।

वे मेरे परममित्र की छोटी बहन के पति थे जो पिछले 10 -12 वर्षों से युगांडा रह रहे थे । अभी कुछ दिन पहले ही शहर आये थे और अब अपने व्यवसाय के पंजीकरण आदि के लिए यहाँ उपस्थित थे । युगांडा जाने के कुछ वर्ष पहले तक उनसे कई बार मैं मिला था और मित्रवर के घर पर उनके साथ बहुत सी लम्बी बैठकें भी हुईं थीं।

- दीक्षित जी, क्षमा करना मैं आपको पहचान नहीं सका । एक तो अप्रत्याशित और दूसरे बहुत कुछ बदलाव ।

- बदलाव तो आपके शरीर पर बहुत हुआ है । कहाँ वह स्लिम ट्रिम काया कहाँ यह मांसल शरीर और उस चिकने चॉकलेटी चेहरे के स्थान पर ये रोबीली मूँछे । मैं भी तो नहीं पहचान सका आपको ।

कहते हुए वे हँस पड़े तो वहाँ उपस्थित सभी लोग भी हँस पड़े ।  तभी काउंसलर की आवाज़ सुनकर मैं केबिन के अंदर चला गया ।

बाद में मैं सोचने लगा कि क्या उँगलियों की छाप, आँखों की पुतलियों की छाप, चेहरे की बनावट, शरीर के अंगों के मस्से, तिल व चोट आदि के निशान के साथ ही साथ किसी की आवाज़ भी इतनी सहायक हो सकती है कि उसे 10-15 वर्षों के बाद भी आसानी से पहचाना जा सके !!

Friday, March 9, 2018

08 मार्च 2018
आज महिला दिवस है । देश की सशक्त नारियों की चर्चा हो रही है और उन्हें सम्मानित किया जा रहा है । ऐसे समय मे मुझे हमारे गाँव की एक ऐसी ही महिला की याद आ रही है जिनका नाम बदल कर मैं यह आलेख लिख रहा हूँ ।

अभी कुछ दिन पहले ही गाँव में होली का आनंद उठाते और सभी से मिलते हुए अनायास ही जब मैं सड़क किनारे एक छोटे से घर के सामने पहुँचा तो मस्तिष्क में अचानक एक शब्द कौंधा "भोस* के" । हाँ यह गाली ही थी जिसने मुझे वहाँ पल भर को ठिठका दिया था । आज वहाँ ताला बंद था । बन्द भी क्यों न हो ! अब वहाँ कोई नहीं रहता । चन्द्रप्रभा बुआ (जिन्हें हम सभी चंद्रा बुआ कहते थे) अभी कुछ दिन पहले ही हम सभी को छोड़ परमपिता की शरण मे चली गयी थीं। वहीं पड़े एक छोटे से तखत में बैठ गया और स्मृतियों में गोते लगाने लगा।

यद्यपि वे हमारी पारिवारिक रिश्तों में बुआ नहीं थी किन्तु गाँवदारी में बहुत नज़दीकी थीं । वे सभी की बुआ थीं और सभी की नजदीकी थीं । अपने जीवनकाल में उनका सभी से कभी न कभी वाद-विवाद अवश्य हुआ था ।

 बचपन में हमने उन्हें अपने घर के सामने बने कुएँ में पानी भरते, बुधवार व शनिवार को बाजार जाते और जानवरों की सानी-पानी का प्रबंध करते हुए देखा था । बहुत बड़े घर और बीघों खेत - बागों की इकलौती स्वामिनी बेहद दुबली पतली चंद्रा बुआ विवाह के बाद यहीं अपने पीहर में ही रह गयीं । हमने बचपन में ही कई बार उन्हें अपनी बूढ़ी और झुकी पीठवाली माँ के साथ आतेजाते हुए भी देखा था ।

इकलौता होने के कारण यद्यपि उनकी सम्पत्ति का कोई बटवारा करने वाला नहीं था फिरभी झगड़ा झंझट से उनका गहरा नाता रहा है । इन्ही झगड़ों में कई बार उनका सामना नेता, दरोगा, तहसील, कोर्ट आदि से भी हुआ ।  हर जगह वे तनकर खड़ी रहीं ।

यह मायके में रहने का दम्भ रहा हो या फिर जमाने की ठोकरों से लड़ने की जिजीविषा ... जिसकी वजह से वे बिना लाग-लपेट और बिना झिझक धाराप्रवाह गालियां देने लगी थीं । मैने अपने जीवन में पहली बार किसी महिला को भीड़ में गालियाँ देते हुए देखा था और मेरे किशोर मन में एक डर सा भर गया था । चौकी- थाने में उनकी इस भाषा के कारण सिपाही दरोगा उनसे बात करने से कतराते थे या फिर वे कहते थे,"बुआ, आप जो भी बात हो उसे शांत होकर बताएं । गालियां न दें।" मैंने सुना है कि ऐसे कई मौकों पर वे उनसे भी कह चुकी थी, "अबे चुप्प भोस* के!"

चंद्रा बुआ साहस का जीता जागता स्वरूप थीं । रात- बिरात कहीं भी जा सकती थीं । बागों में देर रात और धुंधले भोर में अकेले ही आमों की  रखवाली करती थीं । वे एक बेख़ौफ़ और बेबाक़ महिला थीं । यह उनका दबदबा ही था कि विरोधी सामने से वार करने से डरते थे।

बहुत से सामाजिक झंझावातों और खूनी झगडों को सहन करते हुए उस अकेली जान ने पुश्तैनी खेत, खलिहान, घर, और दुकान का एक इंच भी इधर से उधर नहीं जाने दिया । हर सम्भव लड़ीं और जीती भीं । हत्या? के एक मामले में बड़े बेटे को मिली सजा की अवधि को चंद्रा बुआ ने बड़े धैर्य से काटा और बेटे को जेल से बाहर लायी ।  बदले घटनाक्रम में बीच गाँव के बड़े से घर को बेटे बहू के लिए छोड़ कर वे अब सड़क के किनारे अपने खेत मे एक छोटी सी कोठरी बनाकर रहने लगी थी।

अपने लंबे जीवन में उन्हें कुछ असहनीय दर्द मिले जिनमें उनके छोटे बेटे की आकस्मिक मृत्यु, पति की मृत्यु, बहू की आकस्मिक मृत्यु हैं ... और भी बहुत कुछ .....उनकी अपनी बीमारी की पीड़ा है वह अलग ।

मेरे घर में आते जाते या बाहर कहीं भेंट होने पर उन्होंने मुझे कभी भी मेरे नाम या बबुआ- बच्चा कहकर नहीं बुलाया । बुलाया तो "अबे भोस* के" के सम्बोधन से । सच कहूँ तो मुझे यह सम्बोधन कभी गाली जैसा नहीं लगा । मुझे लगता था कि मेरा एक नाम यह भी है जिसपर सिर्फ और सिर्फ चंद्रा बुआ का अधिकार था ।

बुआ जी, यद्यपि आप अब इस नश्वर संसार में नहीं हैं किंतु आप मेरे लिए आज भी जीवटता का एक सशक्त पाठ हैं । आप जैसी कोई दूसरी नहीं ।

आपको मेरी श्रद्धांजलि 💐💐💐