Saturday, September 28, 2013


( ६ )
एक पुरुष ने मुँह क्या फेरा , अब सबने मुँह मोड़ लिया है
साथी ने क्या साथ को छोड़ा , नाता सबने अब तोड़ लिया है
कल तक जो पायल की रुनझुन , बड़ी सुहावन लगती थी
दीर्घ मांग सिन्दूर से पूरित , सदा ही पावन लगती थी
किसी बधिक के धनुष सदृश थी , नैनों में काजल की रेखा
देख लालिमा ओष्ठ अधर की , प्रिय को सदा तृषित ही देखा
आज वही पायल की रुनझुन , बड़ी कर्कशा लगती है
स्वच्छ धवल सी मांग आज तो , सर्प दंश सी डसती है
काजल और अधर की लाली , ज्यों सपना कोई विगत हुआ
हँसी और मुस्कान रहित , यह जीवन जैसे नरक हुआ
आभूषण और वस्त्र रेशमी , दिए कभी जो अपनों ने
छूना भी अपराध इन्हें अब , डर लगता है सपनो में
हुयी अशेष सर्व अभिलाषा , रंग नहीं अब जीवन में
तड़ितपात का भय लगता , यदि समीप जाऊं दर्पण के
आह दैव ! यह कैसा जीवन , कैसा यह समाज का बंधन
निष्ठुर नियमों के कारण ही , हुयी मंगला आज अभागन
xxxxxxxxxxxxxxxxxx आह्वाहन xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
आओ युवको , अब कुछ सोचो , समय आत्म मंथन का है
कुछ सामाजिक वर्जनाओं में , आज महा परिवर्तन का है
सामाजिक हों , मर्यादित हों , किन्तु अव्यवहारिक ना हो
ऐसा रचे की जिससे कोई अब , पापित और शापित न हो

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