मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
उच्च शिखर की चोटी से , अब हमें उतरना ही होगा /
आगत जीवन के लिए हमें , संकल्प बदलना ही होगा //
भावनाओं की ऊंची लहरों से ,हमको लड़ना भी होगा /
अब प्रचंड दैहिक तापों को . हमें शमन करना ही होगा //
मैं झंझावातों में उलझ गया , तुम दिन रहते ही समझ गयी /
मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी //
क्या बहती धाराओं में अब , कलकल संगीत नहीं है ?
मिलने पर गले लगाने की , क्या अब वह रीति नहीं है ?
सप्तपदी में बंधा पुरुष , क्या अब परिणीत नहीं है ?
व्यावसायिकता के जीवन में ,क्या रिश्ते अभिनीत नहीं हैं ?
मैं चिंतनपथ पर ठहर गया , तुम स्वप्नगली में बहक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
तुम जब भी मेरे साथ रहो , क्यों लगे हम निर्जन में हैं ?
जब जीवन हम जीना चाहें , क्यों लगे कि हम उलझन में हैं ?
सम्मुख भी दृष्टि न डाले हम , क्या दोष युगल नयनन में है ?
क्यों शब्द सभी ' जय ' अकथ हुए , क्यों गतिरोध कथन में है ?
मैं जीवन की डोर सहेज रहा , क्यों पीड़ा बन तुम कसक गयी ?
मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
जय साहब बहुत दिनों बाद आज लगा की सचमुच कोई कविता पढ़ रहा हूँ, अति सुन्दर!
ReplyDeleteआज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी और लगा की आप जैसा कवि अब तक कहाँ गम था, लिखते रहिये आप में ब्लॉग जगत में छा जाने की कुव्वत है ! कमेंट्स के लिए वर्ड वेरिफिकेसन हटा दें तो सुविधा होगी!
ReplyDelete