Wednesday, May 5, 2010

तुम निशिगंधा सी महक गयी

मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
उच्च शिखर की चोटी से , अब हमें उतरना ही होगा /
आगत जीवन के लिए हमें , संकल्प बदलना ही होगा //
भावनाओं की ऊंची लहरों से ,हमको लड़ना भी होगा /
अब प्रचंड दैहिक तापों को . हमें शमन करना ही होगा //
मैं झंझावातों में उलझ गया , तुम दिन रहते ही समझ गयी /
मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी //
क्या बहती धाराओं में अब , कलकल संगीत नहीं है ?
मिलने पर गले लगाने की , क्या अब वह रीति नहीं है ?
सप्तपदी में बंधा पुरुष , क्या अब परिणीत नहीं है ?
व्यावसायिकता के जीवन में ,क्या रिश्ते अभिनीत नहीं हैं ?
मैं चिंतनपथ पर ठहर गया , तुम स्वप्नगली में बहक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //
तुम जब भी मेरे साथ रहो , क्यों लगे हम निर्जन में हैं ?
जब जीवन हम जीना चाहें , क्यों लगे कि हम उलझन में हैं ?
सम्मुख भी दृष्टि न डाले हम , क्या दोष युगल नयनन में है ?
क्यों शब्द सभी ' जय ' अकथ हुए , क्यों गतिरोध कथन में है ?
मैं जीवन की डोर सहेज रहा , क्यों पीड़ा बन तुम कसक गयी ?
मैं अमलतास सा बना रहा , तुम निशिगंधा सी महक गयी /
द्विविधावश मैं मूक रहा , तुम मुक्त कंठ से चहक गयी //

2 comments:

  1. जय साहब बहुत दिनों बाद आज लगा की सचमुच कोई कविता पढ़ रहा हूँ, अति सुन्दर!

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  2. आज आपकी कई रचनाएँ पढ़ी और लगा की आप जैसा कवि अब तक कहाँ गम था, लिखते रहिये आप में ब्लॉग जगत में छा जाने की कुव्वत है ! कमेंट्स के लिए वर्ड वेरिफिकेसन हटा दें तो सुविधा होगी!

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